*चिंतन की सोंधी गंध से सराबोर'पहली बारिश'की ग़ज़लें*

 "जो कभी टूट गया था तुमसे/हम उसी आईने में रहते हैं "
कवि मित्र सुधीर सजल की पहली किताब में ऐसे ही अनेक चमकदार अशआर हैं। 'पहली बारिश'
शीर्षक से प्रकाशित सजल की इस पुस्तक में कुल 142 ग़ज़लें हैं। विषय और कथ्य के वैविध्य
की दृष्टि से यह संग्रह समृद्ध है। कवि की कथन-भंगिमा पाठक को प्रभावित करती है, जिससे
वह ठहरकर पढ़ने और इन ग़ज़लों का सहयात्री बनने पर विवश हो जाता है। बानगी देखें :
'आओ आँखों की चमक बनके मुझे सुलगा दो,
बर्फ़ जो जम गयी रगों में वो पिघल जाये।' (पृ. 34)
उदासी जब बर्फ़ की तरह रगों में जमकर किसी के व्यक्तित्व को जड़ बना दे, ऐसे में यह
ख़्वाहिश लाज़मी है कि कोई ज़रा-सी ख़ुशी की आग लेकर आये, जिसकी चमक से सारी उदासी
एकबारगी पिघल जाये।
ज़िन्दगी के हर जलते हुए सवाल पर शायर की तीखी नज़र है। उसके पास इन सवालों के
माकूल जवाब भी हैं, परंतु निज़ाम ने अपनी अघोषित बंदिशों की कटार से उसकी ज़ुबान काट ली

है। वह छटपटा रहा है, मगर चाहकर भी अपने प्रतिरोध के आतिशी अल्फ़ाज़ को उगल नहीं पा
रहा है। उसके मन की बात कुछ इस तरह काग़ज़ पर उतरती है :
'तुम्हारे हर सवाल का जवाब दे दूँगा,
तुम जो वापस मेरी कटी ज़ुबां मुझे दे दो।'पृ. 76)
शायर को मालूम है कि सवालों का क़त्ल इसलिये कर दिया जाता है, क्योंकि सत्ताधीशों के पास
उनके सही और समाधानकारक जवाब नहीं होते हैं। इस रहस्य को भी वह चुनौती के अंदाज़ में
उद्घाटित करता है :
'सवालों ने कहा हमको सज़ा किस बात की दोगे,
जो देना है जवाब ऐसा दो हमको बेज़ुबां कर दो।' (पृ. 155)
 समस्याओं पर विचार करते हुए कई बार शायर का स्वर वक्र भी हुआ है। वह अमिधा या
लक्षणा की बजाय व्यंजना में अपनी बात कहता है। वक्रोक्ति का यह सलीक़ा देखिये : 
'वो सेमिनार में बोलेगा जल-समस्या पर,
आज जल्दी में घर के नल को खुला छोड़ आया।'(पृ. 109)
किसान आंदोलन की गंभीरता और उसके मूल कारण का पता भी शायर को है। फ़सल का सही
मूल्य न देकर जो पूँजीपति-साहूकार उनके पसीने की बूँदों को गोदामों में भरते हैं, उसके
परिणामस्वरूप ही मेहनतकश के बच्चे भूखे रहने पर विवश हैं। इस बात का खुलासा कुछ इस
तरह :
'हमारा ही पसीना है जो बनकर अन्न के दाने,
तुम्हारा पेट भरता फिर भी जो भूखे रहे हम हैं।' (पृ. 49)।
बेटी के लिये कवि सुधीर सजल ने बेहतरीन अशआर कहे हैं। संवेदना की जो गहराई, मन की
जो कोमलता, माता-पिता के दुख और चिंता की जो परवाह बेटी को होती है, वही उसकी विशेषता
है, जिसका उसे वरदान मिला है। इसलिये वह घर की आत्मा है। इस बात को सहज भाव से
सजलजी ने व्यक्त किया है। देखें :
'जब उसे चोट लगी तो छिपा गयी हमसे,
ठीक जब हो गया तो हमको वो दिखाने लगी।'(पृ. 38)
वेदना और दुख को पी जाने या उन्हें अपने दिल में छुपाये रखने की कला केवल बेटियाँ जानती
हैं। वे बचपन में माता या पिता से जीवन के जो सूत्र सीखती हैं,जब स्वयं माँ बन जाती हैं तो
अपनी संतानों को सिखाती हैं। यही बात तो कही है, सुधीर जी ने, कुछ इस तरह :
'उसको बचपन में सिखाया जो, कुछ नहीं भूली,
वही बातें वो आज बच्चों को सिखाने लगी।' (पृ. 39)
आज वृद्धावस्था की जो स्थिति है, वह भी कवि की चिंताओं में शामिल है। वह कहता है :
'बाँस उगाये मगर वक़्त पर लाठी नहीं मिली,

सारे रिश्ते अपने-अपने क़र्ज़ उतार गये।'(पृ. 83)
'मेरी आँखों का पानी देखकर लोहा पिघलता है' का जज़्बा सुधीर सजल के इस पूरे संग्रह में
व्याप्त है। इस कवि ने अपने दिल की आग को प्रकट करने के लिये ग़ज़ल विधा को चुना है।
इसलिये शायर ने ग़मे-जानाँ से ज़्यादा ग़मे-दौराँ को तरज़ीह दी है। जैसे :
'मौसम की नसों में चढ़ा बुखार हम नहीं,
तेरी ज़ुल्फ़ की लटों में गिरफ़्तार हम नहीं।' (पृ. (44)।
'पहली बारिश' की फुहारों में भीगता हुआ कवि सजग है। वह अपनी चेतना को बिखरने नहीं
देता। उसे मालूम है कि अधिक पाने की आकांक्षा में जो थोड़ा-सा पास में है, वह भी न खो जाये।
वह जानता है कि कभी-कभी दिलकश नज़ारों की चाह में नज़र से भी हाथ धोना पड़ जाता है।
कवि के शब्दों में :
'था एक गया वो भी हज़ारों की चाह में,
खो बैठे हम नज़र को नज़ारों की चाह में।'(पृ. 17)।
अंत में यही कहना है कि कवि सुधीर सजल की यह किताब उनकी लगभग तीस साल की
काव्य-साधना का पहला पड़ाव है। इसलिये एक प्रौढ़ सर्जक की कृति होने के नाते यह पाठकों की
अपेक्षाओं पर खरी अवश्य उतरेगी। सुधीर जी की यह कामना हमेशा बनी रहे :
'ख़ुद पर गुमान होने लगे गर कभी मुझे,
मेरी हदें जो आके बता दे कोई तो हो।'

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समीक्षक *- लक्ष्मीनारायण पयोधि* भोपाल 

पुस्तक - सुधीर सजल की गजलें "पहली बारिश"

मूल्य - 300 रु. 

संपर्क - सजल प्रकाशन प्रा लि , जे -5/208 कैनाल किनशिप , सलैया 

भोपाल 462026