लघुकथा - रिश्तों का बंधन
"मां " की मृत्यु के बाद ,रक्षाबंधन में पहली बार सुनीता अपने 4 वर्ष के पुत्र देवांश के साथ,मायके जा रही थी ।अंदर ही अंदर एक अजीब सा डर और घबराहट थी।पता नहीं.. भैया और भाभी मेरे साथ कैसा व्यवहार करेंगे? मेरा वैसा सम्मान होगा भी या नहीं...,जैसे मां के रहने पर होता था । स्टेशन पर उतरते ही, परिचित आवाज कानों में सुनाई दी,सुनीता... "मैं यहां हूं सुनीता आओ".
" यह सामान मुझे दे दो "। भैया को देखकर सुनीता को अच्छा लगा। "कहो देवांश भांजे तुम कौन सी कक्षा में हो "? "मामा जी मैं K .Gमें हूं"।
' घर पर भाभी को इंतजार करते देखकर सुनीता की घबराहट कुछ कम हुई। भाभी ने सुनीता को वैसा ही प्यार किया , जैसा मॉ करती थी।
'भैया ने दुलारते हुए कहा... "बहना..हमारे रहते हुए तुम अपने को कभी भी अकेला मत समझना"।
'राखी का त्यौहार, वैसा ही मनाया गया ,जैसे मॉ के रहने पर मनाया जाता था। सुनीता ने अपने भैया की कलाई में रेशम की डोर बांधकर प्यार के बंधन में बांध दिया।
'सुनीता वहां दो दिन रूकी, और जब वह वापस जाने के लिए तैयार हुई ,तो भाभी ने बहुत सुंदर सी साड़ी और शगुन के 2000 रूपए उसके हाथ में रखा । देवांश को भी कपड़े व रूपये दिए। भाभी और भैया का प्यार देखकर सुनीता की अॉखें छलक गई। भाभी ने रास्ते के लिए टिफिन व मिठाइयां भी रख दी।'भैया उन्हें स्टेशन तक छोड़ने आए ।जब रास्ते में देवांश को भूख लगी और टिफिन खोला तो उसमें पूरी ,सब्जी , अचार तथा मठरी और मिठाइयां थीं। उस खाने से रिश्तों के मिठास की खुशबू आ रही थी ।
-शोभा रानी तिवारी
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