युग का गरल पीकर शिव तत्व की खोज का प्रयास 


इसके  रचियता/कवि देश  के सुविख्यात वरिष्ठ व्यंगकार श्री राजेन्द्र गट्टानी जी हैं।
यह उनका प्रथम काव्य संग्रह है। इस काव्य संग्रह में कुल 108 मुक्तकों का समावेश 
किया गया है। रचनाकार का व्यक्तित्व जितना सहज और सरल है वैसी ही सहजता
और सरलता उनके कृतित्व में भी परिलक्षित होती है। इस कृति के अवतरण के संदर्भ में
मेरी अवधारणा के सापेक्ष सनातन चिन्तन के अनुरुप ही सृष्टि के उद्गम चरण के साथ
मानव जीवन के विकास की सम्भावनायें सुढ़ृड़  होती रही हैं। इसी विकास यात्रा के गति
चक्र में कभी सम और कभी विषम  परिस्थितियों का निर्मित होना अवश्यम्भावी  है।
अनुकूलता और प्रतिकूलता के धरातल पर मानव चेतना के परिवर्तन को हमने संयोग
और वियेाग के रूप में स्वीकार भी कर लिया है। कविता के विभिन्न सौपानों में संयोग
और वियोग की अपनी एक महत्ता है, सही मायनों में कविता अपनी धुरी पर इन्हीं के
प्रभाव की परिणिति होती है। कवि और कविता का फलक तो असीम होता है, कल्पना
के अश्व जब संवेदना के पंख लगाकर कुलाचें भरने लगते हैं तब शब्दब्रम्ह  साकार हो
उठता है जो कवि की साधना का परिचायक बन ध्वनित होने लगता है जिसे हम स्वर
या लय के नाम से आत्मसात कर लेते है । जब कोई नदी समभाव से अपने तटबन्धों
की मर्यादा में बहती है तो उसकी लय में एक सम्मोहन होता है, उसी के वशीभूत  हो
मानव मन में एक गुन्जन का प्रार्दुभाव परिलक्षित होता है। जब भी मन गुनगुनाना चाहे
तो समझ लो कि अंतस के प्रसव से कुछ आकुल, व्याकुल सा बाहर आना चाहता है,
अवतरण की इस प्रक्रिया को ही हम कविता, मुक्तक, गीत इत्यादि कहते हैं। इसी
आकुल व्याकुलता ने शायद  एक व्यंगकार को मुक्तक लिखने के लिए प्रेरित किया है।
ऐसी ही अकुलाहट का प्रतिफल श्री राजेन्द्र गट्टानी जी द्वारा रचित मुक्तक-संग्रह ” युग
का गरल पिया करते हैं “ हिन्दी साहित्य श्रंखला की एक कड़ी बन पड़ा है, जिसमें
उन्होंने अपने जीवन के खट्टे मीठे अनुभवों को साझाकर गुनगुनाने की चेष्टा की है।

सर्वप्रथम इस कृति को सुसज्जित करता हुआ इसका आवरण पृष्ठ ही मानव चेतना को
केन्द्रित कर आघ्यात्म और दर्षन के सुमार्ग को रेखांकित करने में पूर्णतः समर्थ  है, जो
कि पुस्तक के शीर्षक  ” युग का गरल पिया करते हैं “ की शतप्रतिशत  अनुकूलता को
प्रमाणित करता है। पुस्तक का आवरण पृष्ठ पलटते ही पाठक का जिस भावभूमि के
प्रथमेय मुक्तक से साक्षात्कार होता है वह यह सुनिश्चित  करने के लिए पर्याप्त है कि
कवि अपने अंतस के महासागर की किन गहराईयों में पाठक को ले जाने के लिए
कृतसंकल्पित है, जिसमें  वह कवि और कविता के धर्म की वकालत करते हुए कहता है- 
तार-तार दामन संस्कृति  का, मिलकर रोज सिया करते हैं।
अनाचार, अन्याय, विसंगति  का, प्रतिकार किया करते हैं।।
अपने लेखन की प्रतिभा को, ईश्वर का आदेश  मानकर,
हम कवि है! शिवशंकर  बनकर, युग का गरल पिया करते हैं।।

इस मुक्तक को समीक्षा की दृष्टि से देखें तो संसार की सामाजिक व्यवस्था में व्याप्त
कुरीतियों का सामना करने के लिए कवि ईश्वर से किसी वरदान की अपेक्षा न रखते
हुए सिर्फ आदेश चाहता है जिसका अनुपालन कर अपनी प्रखर लेखनी से यथासम्भव
प्रहार करने की सामर्थय पा सके।

आज हम आप सभी जिस समाज की इकाई का प्रतिनिधित्व करते हैं वहाॅं के आचरणों
के  दिन प्रतिदिन होते क्षरण पर भी कवि की पैनी दृष्टि है, उसी परिपेक्ष में यह मुक्तक
देखें -

नियम का, धर्म का, सत का, हुआ अवसान हो जैसे।
मनुजता की कुटिलता ही, बड़ी पहचान हो जैसे।।
हुआ है पूज्य वैभव, विद्वता का श्याम  मुख करके,
यहाॅं ईमान भी लगता, है बेईमान हो जैसे।।

इस मुक्तक में मनुजता की कुटिलता जैसे शब्दों  का संयोजन  एक नये मुहावरे जैसा
प्रतीत होता है, जिसे कवि के लेखन की दक्षता का प्रमाण माना जा सकता है।

कविता के धर्म का निर्वहन करते हुए कवि अपने आस-पास के परिवेष में घटित होते
हुए उपक्रमों के प्रति अपनी लेखनी को सचेत और निर्भीक होने का दम्भ भरते हुऐ
उसकी सहजता और विश्वास को प्रतिबिम्वित करने का साहस भी रखता है। इसी
भावभूमि का यह मुक्तक देखें -

मानव के मन को मानस को, खूब टटोला करती है।
तौल-मोल करती नजरों से, फिर मुॅंह खोला करती है।।
सज्जन को देती प्रशश्ति  पर, दुर्जन पर आक्रोषित हो,
इक निर्भीक कलम से निकली, कविता बोला करती है।।

इस मुक्तक में कलम की निर्भीकता का भाव कविता के विश्वास  को दृढ़ता  तो प्रदान
करता ही है, साथ ही ‘ मानव के मन को मानस को ’ पंक्ति का शब्द  संयोजन भाषा
को अलंकृत भी करता है।

एक समीक्षक की भूमिका की चादर लपेटकर पढ़ते-पढ़ते पुस्तक के 68 वें पेज पर 48
वें मुक्तक पर आकर आँकलन  की दृष्टि ठहर जाती हैजहाॅं कवि और कविता दोनों ही
अपने स्वाभिमानी होने का परिचय देते हुए मिलते हैं। यहाॅं कवि मुखर होता हुआ बड़ी
ही साफगोई से विरासत में मिले अपने संस्कारों का प्रतिनिधित्व करते हुए कहता है -

किसी नेता या अधिकारी की बेग़ारी नहीं करते।
कभी मतलब परस्ती या तलबगारी नहीं करते।।
हमें ख़ुद्दार रहना ही सिखाया है बुजुर्गों ने,
ग़लत जो बात हो उसकी तरफ़दारी नहीं करते।।

इस मुक्तक के भावानुसार खुद्दारी तो मनुष्य के मूल स्वभाव का परिचायक है जो पीढ़ी
दर पीढ़ी धरोहर के रुप में हमें हस्तांतरित होती रहती है, उसे सहेजना संवारना 
निश्चित ही मनुष्य मात्र की जिम्मेदारी बनती है।

कुल मिलाकर कवि की चेतना के प्रकाश पुंज को तलाशते तलाशते  मैं कविता के उन
मुक्तक स्वरुप बहुआयामी मार्गों से गुज़रा हूॅं जहाॅं अधिकांशतः मुक्तक सामाजिक और
दार्शनिक  पक्ष को उद्धाटित करते हुए मिले। पुस्तक में कुछ एक मुक्तक राजनैतिक और
राष्ट्रप्रेम की पृष्ठ भूमि के भी कवि की कलम ने साध रखे हैं। हाॅं श्रृंगार के धरातल पर
चुपचाप अपने अस्तित्व को छुपाये बैठा यह एकाकी मुक्तक भी मिला जिसे पढ़कर समूची
सृष्टि के मायने आलिंगनबद्ध होते प्रतीत हुए। देखें -

आद्र अधरों का जब आचमन मिल गया।
प्यार के पथ का अनुसरण मिल गया।।
शेष कोई न फिर कामना रह गयी,
तुम मिले तो धरा को गगन मिल गया।।

पुस्तक के पृष्ठ पलटते हुए अन्तिम पृष्ठ तक की यात्रा में यह पाया कि कवि द्वारा
रचित इस संग्रह में आघ्यात्मिक, दार्शनिक , सामाजिक, राष्ट्रप्रेम , श्रंगार आदि सभी पक्षों
के गरल को अपनी लेखनी के शीर्ष  से पीकर काव्य धारा की इस वैतरणीं में शिव  तत्व
को खोजने का प्रयास किया गया है। शिव तत्व की परिकल्पना ने इस काव्य संग्रह ‘
युग का गरल पिया करते हैं ’ को अनूठा बना दिया है। संग्रह का शब्द  संयोजन आम
बोलचाल की भाषा है। मुक्तकों का शिल्प प्रशंशनीय   है जो पाठक को पुस्तक के अन्तिम
पड़ाव तक बाॅंधे रखने में समर्थ है,अतः कवि की साधना सार्थक सिद्ध हुई है। 


समीक्षक-ऋषि ‘ श्रृंगारी ’ भोपाल 7987562207

पुस्तक - युग का गरल पिया करते हैं 

कवि - राजेंद्र गट्टानी , भोपाल 

प्रकाशक -वंश पब्लिकेशन , भोपाल, 

मूल्य- ३०० रु. 

संपर्क - श्री निकेत बी , १९४, फार्च्यून प्राइड, एक्सटेंशन , त्रिलंगा, भोपाल 462039